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1st Bihar Published by: First Bihar Updated Sun, 14 Sep 2025 12:13:30 PM IST
बिहार की राजनीतिक में हलचल - फ़ोटो GOOGLE
Bihar Politics: आगामी चुनाव को लेकर इन दिनों बिहार में सरगर्मियां जोरों पर हैं। सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी रणनीतियां तेज कर दी हैं, और चुनाव आयोग भी अपनी तैयारियों में जुटा हुआ है। चुनावी पार्टियों में आरोप-प्रत्यारोप का माहौल चल रहा है। अब बस तारीखों का ऐलान होना बाकी है। इस सियासी माहौल में अगर बिहार की राजनीति के इतिहास पर नजर डालें, तो यह बात चौंकाने वाली है कि राज्य में कई ऐसे मुख्यमंत्री भी रहे हैं, जिनका कार्यकाल बेहद छोटा रहा। कुछ तो 20 दिन भी सत्ता की कुर्सी पर नहीं टिक पाए। आइए जानते हैं बिहार के उन मुख्यमंत्रियों के बारे में, जो सबसे कम समय तक इस पद पर रहे।
सबसे पहले बात करते हैं सतीश प्रसाद सिंह की, जो बिहार के सबसे कम समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता थे। साल 1967 के राजनीतिक बदलावों के दौर में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) का बिहार की राजनीति में खासा प्रभाव था। उस समय मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा के इस्तीफे के बाद 28 जनवरी 1968 को सतीश प्रसाद सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। लेकिन उनका कार्यकाल मात्र 5 दिन चला। 1 फरवरी 1968 को विधानसभा में विश्वास मत हारने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। बाद में वे राज्यसभा के सदस्य बने और राजनीति में सक्रिय रहे, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में यह उनका सबसे छोटा और सीमित कार्यकाल था।
वहीं, दूसरे नंबर पर आते हैं भोला पासवान शास्त्री, जिनकी पहचान एक ऐसे नेता के रूप में रही जो तीन बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन तीनों कार्यकाल मिलाकर भी वे एक साल तक भी मुख्यमंत्री नहीं रह सके। वे पहली बार 22 मार्च 1968 को मुख्यमंत्री बने और उनका पहला कार्यकाल लगभग 100 दिन चला। इसके बाद 22 जून 1969 को उन्होंने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद संभाला, लेकिन यह कार्यकाल सिर्फ 13 दिन का था। फिर 2 जून 1971 को उन्होंने तीसरी बार शपथ ली, जो 9 जनवरी 1972 तक चला। इस प्रकार, तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उनका शासनकाल हमेशा अस्थिर ही रहा।
बता दें कि तीसरे स्थान पर हैं दीप नारायण सिंह, जो बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद कार्यवाहक मुख्यमंत्री नियुक्त किए गए थे। 1 फरवरी 1961 को वे मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनका कार्यकाल सिर्फ 17 दिन तक ही रहा और 18 फरवरी 1961 को उन्होंने पद छोड़ दिया। उनका कार्यकाल अस्थायी था और उद्देश्य सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखना था, इसलिए उन्हें स्थायी मुख्यमंत्री नहीं माना गया।
इससे यह स्पष्ट होता है कि बिहार की राजनीति में अस्थिरता कोई नई बात नहीं रही है। गठबंधन, टूटते-बनते समीकरण और विश्वास मत की राजनीति ने राज्य में कई बार मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल को बेहद छोटा बना दिया है। आज जब बिहार फिर से चुनाव की तैयारी में है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह राजनीतिक स्थिरता के नए अध्याय की शुरुआत करेगा या फिर इतिहास खुद को दोहराएगा।